हमारा मुल्क
विरोधाभासों का मुल्क है। देश में विज्ञान प्रगति कर रहा है लेकिन आम जन में
वैज्ञानिक चेतना और चिंतन विकसित नहीं हो रहा है। यहाँ विज्ञान और अंध विश्वास, एक साथ फल-फूल और पनप रहे हैं। आजादी के बाद से किस तरह के विकास के माडल ने, देश और देश वासियों को किस तरह विकसित किया है कि एक तरफ इंसान चाँद पर पहुँच
रहा है और दूसरी तरफ चाँद की पूजा की जाती है....... बिल्ली के रास्ता काट लेने पर
इंसान रास्ता बदल लेता है.......एक छींक पर, घर से निकलता
आदमी कदम वापस खींच लेता है....... सोअर या सूतक के कारण नवजात को माँ का दूध नहीं
मिलता है...... आदि-आदि।
न्याय पालिका, कार्य पालिका और विधायिका के तीन स्तम्भों पर खड़े हमारे
लोक तंत्र को मजबूत और वयस्क भी बताया जाने लगा है........क्या वास्तव में ये तीनों
स्तम्भ मजबूती से सीधे खड़े हो गए हैं? परिस्थितियाँ गवाही दे रहीं हैं कि समय-समय पर कार्य
पालिका और विधायिका को सीधा करने के लिए न्याय पालिका को कठोर होना पड़ता है........बहरहाल
लगता है कि हमारा लोकतन्त्र एक मजबूत संस्थान की तरह खड़ा नहीं हो पाया है।
भारतीय लोकतान्त्रिक संविधान की प्रस्तावना यह घोषणा करती है कि संविधान अपनी
शक्ति सीधे जनता से प्राप्त करता है, इसी कारण यह ‘हम भारत के लोग’ से प्रारम्भ होती है, लेकिन 65 साल बाद
भी “लोक” सबसे ज्यादा
हाशिये पर है, क्योंकि विधायिका और कार्यपालिका लोक कल्याण की जगह स्व
कल्याण में जुट गई। लोक कल्याण के लिए सबसे ज्यादा जरूरी था लोक चेतना को जगाना।
दुर्भाग्य है कि ये लोक चेतना आज भी बिल्ली और छींक के प्रति वही आस्था दर्शाती है
और वही एक्शन करती है जो उनके पुरखों ने उन्हे सिखाया था। यही वो स्पेस है जिसे
लोक कल्याण कारी सत्ता द्वारा भरना था और जब उसने ये काम नहीं किया तो साधू, संतों और महात्माओं को मौका मिल गया.....
सवाल आस्थाओं को
तोड़ने और छोड़ने का नहीं है, सवाल है चीजों, मान्यताओं और
परम्पराओं को देखने के नजरिए का है। किस डर के कारण हम पुराने नजरिए या दृष्टिकोण
को बदलने की बात तो दूर, उसका पुनर
मूल्यांकन भी करना नहीं चाहते? आम भारतीय मानस क्यों वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सोचना-देखना शुरू नहीं कर
पाया...... या इस बदलाव की गति इतनी धीमी क्यों है? आज भी आम मानस
अंध विश्वासों के पीछे भागता है, उन पर बिना
जांच-पड़ताल के पूरी श्रद्धा और आस्था रखता है। आखिर क्यों........