Tuesday 22 October 2013

बापू के बहाने......... 4


हमारा मुल्क विरोधाभासों का मुल्क है। देश में विज्ञान प्रगति कर रहा है लेकिन आम जन में वैज्ञानिक चेतना और चिंतन विकसित नहीं हो रहा है। यहाँ विज्ञान और अंध विश्वास, एक साथ फल-फूल और पनप रहे हैं। आजादी के बाद से किस तरह के विकास के माडल ने, देश और देश वासियों को किस तरह विकसित किया है कि एक तरफ इंसान चाँद पर पहुँच रहा है और दूसरी तरफ चाँद की पूजा की जाती है....... बिल्ली के रास्ता काट लेने पर इंसान रास्ता बदल लेता है.......एक छींक पर, घर से निकलता आदमी कदम वापस खींच लेता है....... सोअर या सूतक के कारण नवजात को माँ का दूध नहीं मिलता है...... आदि-आदि।
न्याय पालिका, कार्य पालिका और विधायिका के तीन स्तम्भों पर खड़े हमारे लोक तंत्र को मजबूत और वयस्क भी बताया जाने लगा है........क्या वास्तव में ये तीनों स्तम्भ मजबूती से सीधे खड़े हो गए हैं? परिस्थितियाँ गवाही दे रहीं हैं कि समय-समय पर कार्य पालिका और विधायिका को सीधा करने के लिए न्याय पालिका को कठोर होना पड़ता है........बहरहाल लगता है कि हमारा लोकतन्त्र एक मजबूत संस्थान की तरह खड़ा नहीं हो पाया है।
भारतीय लोकतान्त्रिक संविधान की प्रस्तावना यह घोषणा करती है कि संविधान अपनी शक्ति सीधे जनता से प्राप्त करता है, इसी कारण यह हम भारत के लोगसे प्रारम्भ होती है, लेकिन 65 साल बाद भी लोक सबसे ज्यादा हाशिये पर है, क्योंकि विधायिका और कार्यपालिका लोक कल्याण की जगह स्व कल्याण में जुट गई। लोक कल्याण के लिए सबसे ज्यादा जरूरी था लोक चेतना को जगाना। दुर्भाग्य है कि ये लोक चेतना आज भी बिल्ली और छींक के प्रति वही आस्था दर्शाती है और वही एक्शन करती है जो उनके पुरखों ने उन्हे सिखाया था। यही वो स्पेस है जिसे लोक कल्याण कारी सत्ता द्वारा भरना था और जब उसने ये काम नहीं किया तो साधू, संतों और महात्माओं को मौका मिल गया.....
सवाल आस्थाओं को तोड़ने और छोड़ने का नहीं है, सवाल है चीजों, मान्यताओं और परम्पराओं को देखने के नजरिए का है। किस डर के कारण हम पुराने नजरिए या दृष्टिकोण को बदलने की बात तो दूर, उसका पुनर मूल्यांकन भी करना नहीं चाहते? आम भारतीय मानस क्यों वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सोचना-देखना शुरू नहीं कर पाया...... या इस बदलाव की गति इतनी धीमी क्यों है? आज भी आम मानस अंध विश्वासों के पीछे भागता है, उन पर बिना जांच-पड़ताल के पूरी श्रद्धा और आस्था रखता है। आखिर क्यों........ 

Saturday 19 October 2013

बापू के बहाने......... 3



प्रजा के मन की थाह लेने और उनके दुख-सुख जानने के लिए राजा राम रोज देर रात नगर भ्रमण पर निकलते थे। एक दिन भ्रमण के दौरान सीता जी या फिर अपने लिए धोबी द्वारा व्यक्त किए गए विचार उनके कानों में पड़े। परिणाम में सीता का गृह त्याग हुआ। उस सीता का जो अयोध्या वापसी के पूर्व ही अग्नि परीक्षा दे चुकी थीं। (रामचरित मानस का लंका कांड दोहा 108) ये परीक्षा उस सीता को देना पड़ी थी जो राम के कहने पर ही हरण से पहले ही अग्नि में समा गईं थीं और पंचवटी में सिर्फ उनकी छाया वास कर रही थी। (रामचरित मानस का अरण्य कांड दोहा 23) सीता से ये गृह त्याग उन्ही राम ने करवाया था जो जानते थे कि रावण तो सीता की छाया को हर कर ले गया था। फिर राम ने ऐसा क्यों किया……..? फिर सीता ने गृह त्याग क्यों किया.....? राम उस धोबी को चुप भी तो करवा सकते थे.....कारावास में भेज सकते थे, मरवा भी सकते थे........लेकिन राम इस संभावना को तो खत्म नहीं कर सकते थे कि कई लोगों के दिमाग में वैसा ही विचार हो जैसा कि धोबी के मुह से बाहर आया था.... साथ ही राजा की सत्ता का भय भी दिमाग में हो....... प्रजा के उन अप्रकट विचारों के कारण राम और सीता ने वह किया जिसकी विवशता तो कतई नहीं थी।
सार्वजनिक क्षेत्र में लांछन और कलंक के साथ गुजारा नहीं हो सकता। अपनी छवि अक्षुण ने के लिए आम जन और उसके विचारों-भावनाओं के प्रति जवाबदेह होना ही पड़ता है।
भय के कारण दबे हुए हुए विचार अगर अब सामने आ रहे हैं, लड़कियां-महिलाएं अगर खुद सामने आ रही हैं तो आसाराम बापू और उनके पुत्र नारायण स्वामी को भी अग्नि परीक्षा के लिए अपने आपको प्रस्तुत कर देना चाहिए।

बापू के बहाने......... 2



रावण जब मृत्यु शय्या पर था तो राम ने लक्ष्मण को रावण के पास ज्ञान प्राप्ति के लिए भेजा था, इस लिए क्योकि रावण प्रकांड विद्ववान था। ये वही राम थे जिनकी पत्नी को हर लेने के अपराध में रावण मृत्यु को प्राप्त हुआ था। ये वही राम थे जिनके रूप में विष्णु मृत्यु लोक में अवतरित हुए थे। ये वही रावण था जो शिव का सबसे बड़ा उपासक था। ये वही रावण है जिसकी आज भी कई जगह पूजा होती है।


रावण को पराई स्त्री पर कु-दृष्टि डालने की भारी कीमत चुकानी पड़ी, आखिर क्यो..... क्योंकि ये वही रावण था जो जानता था कि राम द्वारा वध के बाद ही वह असुर योनि से मुक्त होगा....... और इस मुक्ति की युक्ति में उसने सीता हरण किया.... इसलिए क्योंकि उसने अपनी पूरी विद्वत्ता को सिर्फ अपनी मुक्ति के लिए इस्तेमाल किया। यानि हकीकत में रावण का सीता हरण का उद्देश्य उनके जिस्म को पाना नहीं, बल्कि अपनी असुर योनि से मुक्ति पाना था। समग्रता में रावण का दोष ये था कि उसने अपने ज्ञान का, अपनी विद्वत्ता का और अपनी समस्त शक्तियों का भरपूर दुरुपयोग किया........सिर्फ अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए।



एक पुत्रवत मित्र शांतनु उपाध्याय ने चंद दिनों पहले आसाराम बापू के कुछ अच्छे कामों की वीडियो क्लिप्स अपनी वाल पर पर देते हुए कहा है कि Media will never show this ये वीडियो क्लिप आसाराम बापू के देवत्व और भलाई को दर्शाते हैं। ये वीडियो क्लिप आसाराम बापू के प्रकट सत्य हैं। ये वीडियो क्लिप तमाम सारे साधू-संतों का वो चेहरा है जो उनके भक्तों की अपेक्षाओं के अनुरूप है। इस उदार चेहरे को मीडिया नहीं दिखा रहा, मीडिया दिखा रहा है अप्रकट सत्य को...... उस चेहरे को जिसे किसी ने नहीं देखा था....... जिसे बरसों से बड़े जतन से छुपा कर रखा गया था।



अब वही पूर्व सेवादार या समर्थक वास्तविक चेहरा सामने लाने की जुर्रत कर पा रहे हैं जो बरसों तक चुप थे या उनके अनुसार चुप रहने को मजबूर थे। टी वी पर बैठे वर्तमान समर्थक, पूर्व सेवादार या पूर्व समर्थक के आरोपों को इस लिए षड्यंत्र बताते हैं क्योंकि वो पिछले कई बरसों से चुप था।



रावण का छोटा भाई विभीषण ना जाने कब से ये सत्य जानता था कि नाभि में अमृत के कारण रावण अमर है, लेकिन उसने अनुकूल वक्त आने पर सुपात्र के सामने ही इस रहस्य को उजागर किया। क्या ये कहा जा सकता है कि विभीषण ने पहले क्यों नहीं बताया....... या उसने किन्ही निहित स्वार्थों के कारण ये कदम उठाया? मित्र एक कहावत है कि घर का भेदी लंका ढाये...... एक और कहावत है कि पाप का घड़ा भरने में वक्त लगता है, लेकिन ये घड़ा फूटता जरूर है........



बापू और अब तो उनके बेटे पर भी वही आरोप लग रहे हैं जो रावण पर लगे थे। रावण के कृत्य के पीछे का स्वार्थ मुक्ति था इस लिए वो कभी राम से छिपता नहीं फिरा बल्कि उन्हे ललकारता रहा। बापू ने भी पहले ललकारा था........ लेकिन उनकी ललकार थी नेताओं को, और चुनौती थी चुनाव में हार जाने की। इस चुनौती का असर ना होने पर, बापू का छुपना और अब उनके परिवार का छुपना दर्शाता है कि लोक कल्याण कारी कार्यों के परमार्थ के पीछे के स्वार्थ का चेहरा कुछ और है। क्या ये संभव नहीं है कि इस चेहरे को छुपाने के लिए ही पूरा परिवार गायब हो गया हो.........




बापू के बहाने......... 1

आसाराम बापू प्रकरण ने जन मानस को उद्वेलित किया हुआ है। इस प्रकरण में राजनीति भी है, अर्थ शास्त्र भी है, मनोविज्ञान भी है, कानून भी है, कानून का पालन करने वाली एजेंसी भी हैं, मीडिया भी है, सोशल मीडिया भी है, धर्म और संस्कृति भी है, नैतिक और अनैतिक की बहस है। समर्थक भी हैं और विरोधी भी हैं, आरोप भी हैं और प्रत्यारोप भी हैं। कुल मिला कर समुद्र मंथन जारी है विष भी निकल रहा है और अमृत भी........ 
 
फेस बुक पर भी मित्रों की राय और नजरिया मेरे सामने हैं, मेरे दिमाग में मची उथल-पुथल ने भी अब विचारों की शक्ल लेना शुरू किया है। बहरहाल....... मेरा मानना है कि हर व्यक्ति के भीतर देव भी और दानव भी। भलाई भी है और बुराई भी। और जब मैं ये मानता हूँ, तो मैं ये कह सकता हूँ कि बापू के साथ भी कुछ ऐसा ही है। उनके भीतर सुर भी है और असुर भी। देव भी और दानव भी। भलाई भी है और बुराई भी। इसलिए मैं ये कह सकता हूँ कि आसाराम बापू प्रकरण एक व्यक्ति नहीं बल्कि सामाजिक परिस्थितियों और सामाजिक व्यवस्थाओं का प्रतिबिंब है। इसलिए इसके बहुत सारे आयाम हैं। मेरी कोशिश है कि बापू के बहाने इन आयामों पर एक स्वस्थ्य चर्चा हो.... आपका दिया गया हर विचार सही होगा इस लिए हर विचार का स्वागत है।

कुछ दिनों पहले बात-चीत के दौरान मेरे बेटे ने बड़ी साफ़गोई से मुझसे कहा था कि उसकी पीढ़ी बड़ी कन्फ्यूज्ड है, उसे कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा।’’ कन्फ्यूज्ड से शायद उसका आशय असुरक्षित होने से था। बहुत सरल शब्दों में आज के युवा वर्ग की हकीकत यही है। वह भविष्य को लेकर, कैरियर को लेकर, शिक्षा को लेकर, रोजगार को लेकर और यहाँ तक कि आस्थाओं और सम्बन्धों को लेकर भी अपने आप को असुरक्षित महसूस करता है।

असुरक्षा की इन परिस्थितियों के पीछे मुझे एक मुख्य मात्र कारण नजर आता है- हमारे देश की विचारहीन, सिद्धांतहीन, भ्रष्ट राजसत्ता। आजादी के 65 वर्षों के लंबे अंतराल में इस सत्ता तंत्र ने देश को भ्रष्टाचार, मंहगाई, भुखमरी, बेरोजगारी और धर्म-संप्रदाय-जाति के आधार पर टूटने की जिस कगार पर पहुंचाया है उससे हर बाशिंदा अपने को असुरक्षित, असहाय, निराश, आतंकित और मजबूर महसूस कर रहा है। जीवन को सरलता और सहजता से गुजारने के जरूरी जिस सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, मानसिक और नैतिक आश्वासन की जरूरत किसी भी आदमी, विशेष रूप से युवाओं के लिए जरूरी है उनमें से कोई भी आश्वासन इस व्यवस्था और परिस्थिति में उसके पास नहीं है। बेहतर ज़िंदगी जीने के सपने देखने के हक भी उसके पास नहीं है।
इन स्थितियों में बेहतरी के सपने को साथ लिए, जहां आशा की किरण नजर आती है वहाँ आम आदमी दौड़ लगा देता है। और यहीं से हर उस व्यक्ति का स्वार्थ सिद्ध होना शुरू होता है जो ऐसे ही घबराए हुए लोगों की ताक में पहले से जाल बिछा कर बैठा था। ये व्यक्ति नेता की शक्ल में सामने आते हैं, शिक्षा और अच्छी नौकरी के दलालों की शक्ल में सामने आते हैं, पैसे को दुगना और चार गुना करने वाली चिटफंड कंपनियों की शक्ल में सामने आते हैं और साधू संतों के रूप में सामने आते हैं। ऐसे नेता, दलाल और साधू संत अपने समर्थकों या अनुयायियों के मन-मस्तिष्क में अपनी ऐसी मायावी सत्ता स्थापित करते हैं जो उनके रहे-सहे विवेक, समझदारी और उनके विचारों तक पर हावी हो जाती है और आम आदमी पूरी ईमानदारी, विश्वास और आस्था से इनके पीछे चल पड़ता है। आम आदमी न तो नेता की नेतृत्व क्षमता की परीक्षा लेते हैं न ही दलाल तंत्र की हकीकत को जानने की कोशिश करते हैं और ना ही साधू-संतों की सतकर्मों की गहरी पड़ताल करते हैं...... वो तो बस सुने-सुनाये पर आगे बढ़ते जाते हैं।