आसाराम बापू प्रकरण ने जन मानस को उद्वेलित किया हुआ है। इस प्रकरण में
राजनीति भी है, अर्थ शास्त्र भी है, मनोविज्ञान भी है, कानून भी है, कानून का पालन करने वाली एजेंसी भी हैं, मीडिया भी है, सोशल मीडिया भी है, धर्म और संस्कृति भी है, नैतिक और अनैतिक की बहस है। समर्थक भी हैं और विरोधी भी
हैं, आरोप भी हैं और प्रत्यारोप भी हैं। कुल मिला कर समुद्र मंथन जारी है विष भी
निकल रहा है और अमृत भी........
फेस बुक पर भी मित्रों की राय और नजरिया मेरे सामने हैं, मेरे दिमाग में मची उथल-पुथल ने भी अब विचारों की शक्ल
लेना शुरू किया है। बहरहाल....... मेरा मानना है कि हर व्यक्ति के भीतर देव भी और
दानव भी। भलाई भी है और बुराई भी। और जब मैं ये मानता हूँ, तो मैं ये कह सकता हूँ कि बापू के साथ भी कुछ ऐसा ही है।
उनके भीतर सुर भी है और असुर भी। देव भी और दानव भी। भलाई भी है और बुराई भी।
इसलिए मैं ये कह सकता हूँ कि “आसाराम बापू प्रकरण” एक व्यक्ति नहीं बल्कि सामाजिक परिस्थितियों और सामाजिक व्यवस्थाओं का
प्रतिबिंब है। इसलिए इसके बहुत सारे आयाम हैं। मेरी कोशिश है कि बापू के बहाने इन
आयामों पर एक स्वस्थ्य चर्चा हो.... आपका दिया गया हर विचार सही होगा इस लिए हर
विचार का स्वागत है।
कुछ दिनों पहले
बात-चीत के दौरान मेरे बेटे ने बड़ी साफ़गोई से मुझसे कहा था कि “उसकी पीढ़ी बड़ी कन्फ्यूज्ड है, उसे कोई रास्ता
नजर नहीं आ रहा।’’ कन्फ्यूज्ड से शायद उसका आशय “असुरक्षित” होने से था। बहुत सरल शब्दों में आज के युवा वर्ग की हकीकत
यही है। वह भविष्य को लेकर, कैरियर को लेकर, शिक्षा को लेकर, रोजगार को लेकर और यहाँ तक कि आस्थाओं और सम्बन्धों को लेकर भी अपने आप को
असुरक्षित महसूस करता है।
असुरक्षा की इन
परिस्थितियों के पीछे मुझे एक मुख्य मात्र कारण नजर आता है- हमारे देश की विचारहीन, सिद्धांतहीन, भ्रष्ट राजसत्ता। आजादी के 65 वर्षों के लंबे अंतराल में
इस सत्ता तंत्र ने देश को भ्रष्टाचार, मंहगाई, भुखमरी, बेरोजगारी और धर्म-संप्रदाय-जाति के आधार पर टूटने की जिस
कगार पर पहुंचाया है उससे हर बाशिंदा अपने को असुरक्षित, असहाय, निराश, आतंकित और मजबूर महसूस कर रहा है। जीवन को सरलता और सहजता से गुजारने के
जरूरी जिस सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, मानसिक और नैतिक
आश्वासन की जरूरत किसी भी आदमी, विशेष रूप से युवाओं के लिए जरूरी है उनमें से कोई भी आश्वासन इस व्यवस्था और
परिस्थिति में उसके पास नहीं है। बेहतर ज़िंदगी जीने के सपने देखने के हक भी उसके
पास नहीं है।
इन स्थितियों में
बेहतरी के सपने को साथ लिए, जहां आशा की किरण
नजर आती है वहाँ आम आदमी दौड़ लगा देता है। और यहीं से हर उस व्यक्ति का स्वार्थ सिद्ध
होना शुरू होता है जो ऐसे ही घबराए हुए लोगों की ताक में पहले से जाल बिछा कर बैठा
था। ये व्यक्ति नेता की शक्ल में सामने आते हैं, शिक्षा और अच्छी
नौकरी के दलालों की शक्ल में सामने आते हैं, पैसे को दुगना और
चार गुना करने वाली चिटफंड कंपनियों की शक्ल में सामने आते हैं और साधू संतों के
रूप में सामने आते हैं। ऐसे नेता, दलाल और साधू संत अपने समर्थकों या अनुयायियों के
मन-मस्तिष्क में अपनी ऐसी मायावी सत्ता स्थापित करते हैं जो उनके रहे-सहे विवेक, समझदारी और उनके विचारों तक पर हावी हो जाती है और आम आदमी
पूरी ईमानदारी, विश्वास और आस्था
से इनके पीछे चल पड़ता है। आम आदमी न तो नेता की नेतृत्व क्षमता की परीक्षा लेते
हैं न ही दलाल तंत्र की हकीकत को जानने की कोशिश करते हैं और ना ही साधू-संतों की
सतकर्मों की गहरी पड़ताल करते हैं...... वो तो बस सुने-सुनाये पर आगे बढ़ते जाते
हैं।
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